Monday, February 28, 2011

कभी यूँ भी तो हो

कभी यूँ भी तो हो,

बंद पलकों में सपने हों,
और खुलती आँखों में अपने हों!!

कभी यूँ भी तो हो,

नींद की जब विदाई हो,
सबेरा कुछ और सुहाना सा हो!!

कभी यूँ भी तो हो,

आसमान कुछ और आसमानी सा हो,
सूरज कुछ और रोशन सा हो!!

कभी यूँ भी तो हो,

मौसम कुछ दीवाना सा हो,
फिजाओं में कुछ अनजानी महक सी हो!!

कभी यूँ भी तो हो,

बंद पलकों में सपने हों,
और खुलती आँखों में अपने हों!!

Thursday, February 24, 2011

क्या लिखूं?

क्या लिखूं?
सच लिखूं  या झूठ का साज सुनाऊं!!

अपने मन का भाव सुनाऊं या चुप  रहूँ,
दुनिया को देखूं और दिखाऊं!!

क्या समझूं ?

उसको बाचूँ जो दिखता है,या उसको समझूँ जो समझाया जाता है1
दुनिया को देखूं, और अलग-अलग बातें सीखूं !!

क्या बताऊ?

अपनी झूटी खुशियाँ दिखलाऊं,
और दुःख का भाव छुपाऊं!!

और क्यूँ न  इन सब से अच्छा करूँ?
क्यूँ न चुप रहूँ !!

इस दोहरेपन को दुनिया की रीत समझूँ ,
ख़ामोशी की आवाज सुनु और सुनाऊं!!

सबकुछ छुपाऊं,
और हंस कर अपना नाम सार्थक करूँ !!

 -हर्षिता   

Thursday, February 17, 2011

लड़का लडकी दोनों, एक सिक्के के दो पहलू जैसे

लड़का लडकी दोनों,
एक सिक्के के दो पहलू जैसे !!

या फिर दोनों,
दिन-रात जैसे !!

जैसे जब रात हो तभी दिन होगा,
एक के बिना दूसरा अधूरा होगा!!

दोनों एक विधाता की कृतियाँ,
प्रदान की गयी जिनको अलग अलग छवियाँ !!

कैसे कोई किसी पे आक्षेप लगाये,
कि उसमे हैं कमियां!!

शायद होती होंगी सबकी अपनी कमियां,
या मिली होंगे अलग अलग शक्तियां!!

लड़का लडकी दोनों,
सदैव रहे अतुलनीय जैसे!!

दोनों सिक्के के दो पहलू जैसे,
दिन रात न हो सकता जैसे!!

लड़का न लडकी हो सकता वैसे,
फिर लडकी लड़का हो सकती कैसे!!

दिन रात दोनों का होना जरुरी जैसे,
लड़का लडकी दोनों का होना जरुरी वैसे!!

लड़का लडकी दोनों,
एक सिक्के के दो पहलू जैसे !!

Tuesday, February 8, 2011

क्यूँ डरूं मै और किसलिए डरूं?

क्यूँ डरूं मै और किसलिए डरूं ?
क्या इसलिए डरूं?कि मै एक लडकी हूँ,

लेकिन मै न कभी डरी आजतक और न कभी आगे डरूं,
जब आजतक न पाया अंतर कोई तो आगे आने वाले अंतरों से क्यूँ डरूं?

क्यूँ न इतनी सामर्थ्यवान बनूँ,
कि समाज को बदलूँ,

मै बदलूँ और सब कुछ बदल डालूं,
आखिर कौन सी ऐसी कमी मुझ में जो मै डरूं,

क्यूँ न पहुचुं उस ऊंचाई तक ,जहाँ न पहुंचे कभी कोई ,
बादलों तक उड़ जाऊ और आसमान को छु लूँ,

क्या इसलिए डरूं ?
कि मै एक लडकी हूँ,

पर मै न कभी डरूं

क्यूँ कि जो डरे वो न कभी आगे बढे,
पर मै तो हमेशा उन्नति पथ पर चलूँ,

तो क्यूँ न उड़ चलूँ,
आगे बढ़ने का अरमान लिए,

क्यूँ कि रुकना मेरा काम नहीं,
और डरना मेरे पहचान नहीं ,

क्यूँ साहिल के सुकून का इंतजार करूँ,
क्यूँ न समंदर से कश्तियाँ निकलने का मजा लूँ !!

जो की फितरत है मेरी, क्यूँ न इसको कायम रखूं !!
मै बदलूं और समाज को बदल डालूं ,

आखिर क्यूँ डरूं मै और किसलिए डरूं !!

Sunday, February 6, 2011

लड़का लडकी एक समान!!!!

लड़का लडकी एक समान,
क्या इसमे सत्यता रत्ती समान,

बचपन में माता पिता ने किया न अंतर कोई ,
भाव दिया सदैव एक समान,

ज्यों-ज्यों उम्र ने प्रभाव दिखाना किया जारी,
और बुधि ने कम किया भारी,

स्वत: ही आने लगा समझ में,
लड़का लडकी कभी न एक समान,

धीरे धीरे ये अंतर की खाई,
गहराई समुद्र समान,

तभी एक दिन सामने आये जीवन की दूसरी सच्चाई ,
जो सामने खडी थी लिए एक परिवेश नया,

एक नया माहौल,
और कई विचार जो की थे समान और असमान,

पर हमारे समाज में लड़के सदैव अपने मन के राजा समान
और में क्या?

सचमुच क्या?
क्या एक निर्जीव वस्तु समान!!!

कहते हैं बदल गया समाज ,
अब लड़का लडकी एक समान,

लेकिन लड़का लडकी कभी न एक समान,
सदैव रहे असमान,

पर क्या आएगा कोई दिन ऐसा,
जो शायद हो दूसरे स्वतंत्रता दिवस समान,

जिस दिन साथक हो ये शब्द स्वर्णाक्षर समान ,
कि लड़का लडकी एक समान !!!

Friday, January 21, 2011

तारों का टूटना...

इस रंग बदलती दुनिया के रंग कई ,
पर सब की एक धरती और आसमान एक वही ,

ये आसमान रंग बदला अनेक !!!
कभी सुर्ख नीला सा प्यारा ,तो कभी ढका हुआ बादलों में कई ,

कभी देता सूर्य की रोशनी प्यारी ,
तो कभी बरसा देता चाँद की चांदनी न्यारी!!

कभी तारों से भरा देता खुशियाँ कई ,
और जब ढक लेते तारों को बदल कई,
तो देता कालिमा गहरी !!

इन सब के बीच आसमान की ओर टकटकी लगाए ,
बैठे रहते मनुष्य रूपी चातक कई !!

जो की इंतजार में है की तारा टूटे कोई,
ओर कामना पूरी करे उनकी कई!!

पर वो क्या कामना पूरी करे कोई,
जो खुद ही आये दुनिया में नई,
छोड़कर अपनी खुशियाँ कई!!

उसे भी तो होते होंगे दर्द कई,
जब वो छोड़कर आये दुनिया अपनी,
जहाँ उसके इंतजार में बैठे होंगे उसके अपने कई !!

फिर भी हम इंतजार में बैठे रहे कहीं ,
कि टूटेगा तारा कोई !!

लगता तो ये इंतजार उचित नहीं,
परन्तु हम असमर्थ है कर सकने में कुछ कहीं,
क्यूँ कि तारे को टूटना ही होगा कहीं न कहीं !!

ये तो प्यारे विधान है विधि का जरुरी,
कि तारा टूटेगा जरुर कहीं न कहीं !!

Wednesday, January 19, 2011

कुछ विचार

मैं छोटी थी ,
मा के आँचल में सोती थी, पापा की गोद में खेलती थी,
खिलोनो के लिये रोती थी,
और दो मिनट में सबकुछ अपने पास पाती थी!!

मैं क्या चाहती हूँ शायद ये जानती थी ,
नासमझ होते हुये भी खुद को जानती थी,

और अब दुनिया की नज़रों में समझदार होते हुई भी खुद से अनजान
जो की अनजान है अपने आप से, अपने विचारों से !!

तो सोचती हूँ अच्छा क्या?
नासमझ होना या फिर समझदार होना,
पर लगता है नासमझ होना ज्यादा अच्छा !!!