कितनी चिर परिचित सी लगती है झींगुर की प्रतिध्वनी ,
बचपन में ये मुझे डराया करती थी ...
मैं सोचा करती थी , ये ले जा लेगी मुझे मेरे दुनिया से दूर ..
अक्सर सोचते थी की ये क्यूँ बोला करते हैं ?
अनायास ही मैं भूल सा गयी थी ईस प्रतिध्वनी को ..
शायद घनी निद्रा के आगोश में रहते थी ...
एक दिन कांच की तरह स्वप्न के टूटने से चैतन्य सी हो गयी थी ..
पुनः सुनाये दी झींगुर की प्रतिध्वनी तो समझ आया ...
ये कहा करते हैं की कितने भाग्यशाली हो तुम ,
जो तुम्हारी बोली को हर कोई समझ लिया करता हैं ...
और एक मैं हूँ जो स्वयं अपनी करुण वेदना सुनाया करता हूँ ..
तो भी बच्चे डरा करते हैं ......
कितनी चिर परिचित सी लगती है झींगुर की प्रतिध्वनी ...
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