Tuesday, February 8, 2011

क्यूँ डरूं मै और किसलिए डरूं?

क्यूँ डरूं मै और किसलिए डरूं ?
क्या इसलिए डरूं?कि मै एक लडकी हूँ,

लेकिन मै न कभी डरी आजतक और न कभी आगे डरूं,
जब आजतक न पाया अंतर कोई तो आगे आने वाले अंतरों से क्यूँ डरूं?

क्यूँ न इतनी सामर्थ्यवान बनूँ,
कि समाज को बदलूँ,

मै बदलूँ और सब कुछ बदल डालूं,
आखिर कौन सी ऐसी कमी मुझ में जो मै डरूं,

क्यूँ न पहुचुं उस ऊंचाई तक ,जहाँ न पहुंचे कभी कोई ,
बादलों तक उड़ जाऊ और आसमान को छु लूँ,

क्या इसलिए डरूं ?
कि मै एक लडकी हूँ,

पर मै न कभी डरूं

क्यूँ कि जो डरे वो न कभी आगे बढे,
पर मै तो हमेशा उन्नति पथ पर चलूँ,

तो क्यूँ न उड़ चलूँ,
आगे बढ़ने का अरमान लिए,

क्यूँ कि रुकना मेरा काम नहीं,
और डरना मेरे पहचान नहीं ,

क्यूँ साहिल के सुकून का इंतजार करूँ,
क्यूँ न समंदर से कश्तियाँ निकलने का मजा लूँ !!

जो की फितरत है मेरी, क्यूँ न इसको कायम रखूं !!
मै बदलूं और समाज को बदल डालूं ,

आखिर क्यूँ डरूं मै और किसलिए डरूं !!

Sunday, February 6, 2011

लड़का लडकी एक समान!!!!

लड़का लडकी एक समान,
क्या इसमे सत्यता रत्ती समान,

बचपन में माता पिता ने किया न अंतर कोई ,
भाव दिया सदैव एक समान,

ज्यों-ज्यों उम्र ने प्रभाव दिखाना किया जारी,
और बुधि ने कम किया भारी,

स्वत: ही आने लगा समझ में,
लड़का लडकी कभी न एक समान,

धीरे धीरे ये अंतर की खाई,
गहराई समुद्र समान,

तभी एक दिन सामने आये जीवन की दूसरी सच्चाई ,
जो सामने खडी थी लिए एक परिवेश नया,

एक नया माहौल,
और कई विचार जो की थे समान और असमान,

पर हमारे समाज में लड़के सदैव अपने मन के राजा समान
और में क्या?

सचमुच क्या?
क्या एक निर्जीव वस्तु समान!!!

कहते हैं बदल गया समाज ,
अब लड़का लडकी एक समान,

लेकिन लड़का लडकी कभी न एक समान,
सदैव रहे असमान,

पर क्या आएगा कोई दिन ऐसा,
जो शायद हो दूसरे स्वतंत्रता दिवस समान,

जिस दिन साथक हो ये शब्द स्वर्णाक्षर समान ,
कि लड़का लडकी एक समान !!!

Friday, January 21, 2011

तारों का टूटना...

इस रंग बदलती दुनिया के रंग कई ,
पर सब की एक धरती और आसमान एक वही ,

ये आसमान रंग बदला अनेक !!!
कभी सुर्ख नीला सा प्यारा ,तो कभी ढका हुआ बादलों में कई ,

कभी देता सूर्य की रोशनी प्यारी ,
तो कभी बरसा देता चाँद की चांदनी न्यारी!!

कभी तारों से भरा देता खुशियाँ कई ,
और जब ढक लेते तारों को बदल कई,
तो देता कालिमा गहरी !!

इन सब के बीच आसमान की ओर टकटकी लगाए ,
बैठे रहते मनुष्य रूपी चातक कई !!

जो की इंतजार में है की तारा टूटे कोई,
ओर कामना पूरी करे उनकी कई!!

पर वो क्या कामना पूरी करे कोई,
जो खुद ही आये दुनिया में नई,
छोड़कर अपनी खुशियाँ कई!!

उसे भी तो होते होंगे दर्द कई,
जब वो छोड़कर आये दुनिया अपनी,
जहाँ उसके इंतजार में बैठे होंगे उसके अपने कई !!

फिर भी हम इंतजार में बैठे रहे कहीं ,
कि टूटेगा तारा कोई !!

लगता तो ये इंतजार उचित नहीं,
परन्तु हम असमर्थ है कर सकने में कुछ कहीं,
क्यूँ कि तारे को टूटना ही होगा कहीं न कहीं !!

ये तो प्यारे विधान है विधि का जरुरी,
कि तारा टूटेगा जरुर कहीं न कहीं !!

Wednesday, January 19, 2011

कुछ विचार

मैं छोटी थी ,
मा के आँचल में सोती थी, पापा की गोद में खेलती थी,
खिलोनो के लिये रोती थी,
और दो मिनट में सबकुछ अपने पास पाती थी!!

मैं क्या चाहती हूँ शायद ये जानती थी ,
नासमझ होते हुये भी खुद को जानती थी,

और अब दुनिया की नज़रों में समझदार होते हुई भी खुद से अनजान
जो की अनजान है अपने आप से, अपने विचारों से !!

तो सोचती हूँ अच्छा क्या?
नासमझ होना या फिर समझदार होना,
पर लगता है नासमझ होना ज्यादा अच्छा !!!

Monday, January 10, 2011

स्वतन्त्रत


गुजर गये है दशक स्वतन्त्रता प्राप्त किये,
हम स्वतन्त्रत है??
पर क्या हम वास्तव मै स्वतन्त्रत है????
नही हम स्वतन्त्रत नही है.

स्वतन्त्रता का झुटा दिखावा करते है.
सही मायनो मे स्वतन्त्रत तो ये पक्षी है.
जिन्हे कोई सरहद रोक नही पाती.
हम तो बस स्वतन्त्रता का दिखावा करते है!!!
बडी बडी बाते करते है, वाद विवाद करते है.
पर हम सब आज भी परतन्त्र है.
हम छुना चाहते है खुले आसमान को ,
पर क्या छु सकते है, नही ना..
ऐसी ही हजारो ख्वाहिशे हर रोज किसे के अन्दर दम तोडती है
पर कभी पूरी नही हो पाती,क्यौकी हम परतन्त्र है..

ये परतन्त्रता सामने आती है
कभी किसी बन्धन के रूप मे, तो कभी पैरो मे पडी बेडियो के रूप मे,
या फिर कभी किसी बडे के लिहाज के रूप मे, या फिर किसी को दिये वचन के रूप मे,

तो हम कैसे स्वतन्त्रत हो सकते है!!!
हम तो बस स्वतन्त्रता का दिखावा करते है,
कि हम स्वतन्त्रत है.

किन्तु परतन्त्र होने मे योगदान किसका है?
मेरा खुद का, या मेरी आकन्क्षाओ का??
शायद मेरा ही होगा......
फिर भी मान लेते है कि हम स्वतन्त्रत है!!!!!

Wednesday, November 10, 2010

झींगुर की प्रतिध्वनी

कितनी चिर परिचित सी लगती है झींगुर की प्रतिध्वनी ,
बचपन में ये मुझे डराया करती थी ...
मैं सोचा करती थी , ये ले जा लेगी मुझे मेरे दुनिया से दूर ..
अक्सर सोचते थी की ये क्यूँ बोला करते हैं ?
अनायास ही मैं भूल सा गयी थी ईस प्रतिध्वनी को ..
शायद घनी निद्रा के आगोश में रहते थी ...
एक दिन कांच की तरह स्वप्न के टूटने से चैतन्य सी हो गयी थी ..
पुनः सुनाये दी झींगुर की प्रतिध्वनी तो समझ आया ...
ये कहा करते हैं की कितने भाग्यशाली हो तुम ,
जो तुम्हारी बोली को हर कोई समझ लिया करता हैं ...
और एक मैं हूँ जो स्वयं अपनी करुण वेदना सुनाया करता हूँ ..
तो भी बच्चे डरा करते हैं ......
कितनी चिर परिचित सी लगती है झींगुर की प्रतिध्वनी ...

खौफ

   I had done M.Sc from Pantnagar and now I get opportunity to teach Physics 
and Electronics there. We felt a lot of terror when we were student of there from Head of the department and now when I teach there I still felt terror. I want to share my this experience with all.

अक्सर कहते है , बड़ा ही खौफनाक मंजर था ...
क्या सार्थक है ये खौफ शब्द ...?
ईस खौफ शब्द के विभिन्न मायने !!!
कभी किसी को मंजर से खौफ लगता है तो कभी किसी को धवनी से ..
हर कोई डरता है इन खौफनाक मंजरों से ..
कभी किसी बड़े का होता है ये खौफ ..
अक्सर जब में पढाया करते हूँ ...
काफी प्यार से बोला करते हूँ बच्चों से ...
क्यूँ की उंची आवाज से मुझे डर लगता था ..
पर अचानक से अगर कभी किसी की आवाज सुनाये दे जाय
तो छा जाता है सन्नाटा सा .....
शायद मेरे साथ ओरों को भी लगता है ईस आवाज से खौफ ...